गोंडा : जिस शहर में बिजली की चकाचौंध में चमचमाती मोटर गाडियां दिन रात भागती दौड़ती रहती हैं उसी शहर में एक किनारे गर्मी, जाड़ा और बरसात के थपेड़ों से बेपरवाह झोपड़ियांे में रह रहे कई गरीब परिवार कचरा बटोर कर किसी तरह गुज़र बसर कर रहे हैं। इन्हीं में से एक है आरफा का परिवार। वह असम के गरीब मुस्लिम समुदाय की है। आरफा के घर और जीवन में भी अंधेरा ही अंधेरा है। उसे इंतज़ार है विकास की उस रोशनी का, जो उसके परिवार को एक पक्का मकान दिलवा दे, जो बिजली से रोशन हो और पानी की उचित व्यवस्था हो। आरफा की तरह दर्जनों महिलाएं परिवार के लिए वर्षाें से यही सपना देख रही है। लेकिन कोरोना महामारी से बचाव के लिए देश में लगे लाक डाउन से इनके जीवन में और भी अंधेरा हो गया। अब इन परिवारों के लिए भोजन की भी समस्या पहाड़ बनकर खड़ी हो गई है।
झोपड़पट्टी में समस्याओं का अम्बार
शहर के अयोध्या रोड पर मुन्नन खां चौराहे के पास तीन बीघे जमीन में असम के बरपटा जिले के मुस्लिम समुदाय के अलावा कुछ अन्य समुदायों के गरीब परिवार भी झुग्गी बनाकर वर्षों से बसे हुए हैं। जमीन मालिक को दस हजार प्रतिमाह किराया देते हैं। इन परिवारों का सपना है कि उनका अपना एक मकान हो। इस झोपड ़पट्टी में 14 तो शहर के कई स्थानों को मिलाकर लगभग पांच दर्जन परिवारों का बसेरा है। सबके मकान इन्हीं कबाड़ की प्लास्टिक और अन्य समानों से तैयार किए गए हैं। कुछ घरों में बिजली का कनेक्शन है तो कुछ में नहीं। निस्तारी सुविधा के लिए गड्ढा खोदकर बांस और प्लास्टिक की मदद से एक कच्चा सामूहिक शौचालय है। लेकिन संख्या ज्यादा होने से हमेशा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आसपास आबादी होने के कारण बाहर भी नहीं जा सकते।
कष्टदायी है झोपड़ी का जीवन
आरफा की छोटी सी झोपड़ी में सुखी जीवन का तो सवाल ही नहीं उठता। जहां पैर फैलाकर सोना या फिर कुछ आराम से बैठ पाना मुमकिन नहीं, उसी झोपड़ी में आरफा अपने पति मोहम्मद लाल चनाली और दो बच्चों के साथ रहती है। असम के बरपटा जिले से दस साल पहले काम की तलाश में आए पति लाल चनाली को कचरे में कबाड़ बटोरने का ही काम मिला। कचरा के काम से ऊबकर शहर के एक निजी अस्पताल में काम करता था लेकिन लाकडाउन में नौकरी छूट गई तो वह फिर कचरा बीनने के काम में लग गया। आरफा कहती है अगर भारी बरसात हुई तो बहुत तकलीफ़ हो जाती है। झोपड़ी और पूरे परिसर में पानी भर जाता है तब इन्हें भीगते ही दिन रात गुजारना होता हैं। क्योंकि इनके लिए आसपास के घरों के दरवाजे बंद होते हैं। आरफा का सपना है कि उसका अपना घर हो जिसमें सभी सुविधाएं हों। आरफा बताती है कि उनके और यहां के अन्य परिवारों के बच्चों की दुनिया बस यही है। क्योंकि वे उनके पास अच्छे कपड़े नहीं हैं। वे किसी रेस्तरां अथवा पार्क में नहीं जा सकते। इसी प्रकार शहर के कांशीराम कालोनी, जिला अस्पताल के पास रह रहे तकरीबन चार दर्जन कचरा बीने वाले परिवारों का भी है।
कचरे के ढेर का कबाड़ रोटी का जरिया
मुस्लिम परिवारों के पुरुष अपनी सायकिलों के कैरियर के दोनों ओर प्लास्टिक की बड़ी-बड़ी थैलियां बांधकर और ठेले लेकर तो महिलाएं एवं छोटे-छोटे बच्चे और बच्चियां बोरे लेकर शहर में दिन भर टिन-टप्पर और शीशी, बोतल, कागज का गत्ता, प्लास्टिक की पन्नी़, प्लास्टिक, टीन के डिब्बे, शीशे, चप्पल, जूते, गंदे कपड़े, थर्माकोल आदि बीनते हैं। शहर के लोगों द्वारा फेंके गए इसी निष्प्रयोज्य कबाड़ को स्थानीय कबाड़ियों के पास बेचकर कुछ कमाई कर लेते हैं। इनके जिंदगी का बड़ा हिस्सा कूड़े के बीच ही बीत जाता है। आरफा का पति मोहम्मद लाल चनाली बताता है कि उनका कबाड़ दो से तीन रुपए किलों के भाव बिकता है। इससे दिन भर में 100 से 150 और माह में औसतन साढ़े चार हजार की कमाई हो पाती है। ऐसे में बहुत मुश्किल से गुजारा होता है। तब बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्च कहां से उठा पाएंगे।
बाजार की बंदी से प्रभाव
लाकडाउन के दौरान कचरे के ढेर से कबाड़ चुनने वालों को जिंदगी कबाड़ हो गई है। स्क्रैप टाल बंद होने के कारण छोटे कारोबारियों के पास जो गोदाम हैं, उसमें माल अटे पड़े हैं। लिहाजा, कबाड़ चुनने वालों की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है कि उनका गुजारा बहुत मुश्किल से चल रहा है या फिर वे इधर-उधर राशन मांग कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। स्थानीय स्तर पर कबाड़ खरीद कर बड़े व्यापारियों को बेचने वाले कल्लू खां और उनके लड़के मो. रफीक ने बताया कि शहर के विभिन्न इलाकों में लगभग 100 छोटे टाल हैं। इसमें अधिकांश टाल इसी इलाके में हैं। इसमें घर से पुराने फेंके हुए पुराने सामान को चुनकर बेचा जाता है। प्लास्टिक से लेकर लोहा तक के सामान की अलग-अलग दर है। कचरे के ढेर से कबाड़ चुनने में सौ से डेढ़ सौ रुपये तक मिलते हैं इसी से से इनका घर परिवार चलता है। लाक डाउन में कुछ समाजसेवियों ने दो-तीन बार राशन देकर मदद की है।
कचरे के ढेर में गुम मासूमों की जिंदगी
असम से आए इन गरीबों के बच्चों का भविष्य कचरे के ढेर में ही खोकर रह गया है। पारिवारिक दयनीय स्थिति के चलते कचरा बीनकर दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में लगे हुए है और इसी कचरे के बीच इनका बचपन कहीं खो गया है। श्रमजीवी गरीबों की यह झुग्गी बस्ती गोंडा-अयोध्या मार्ग के निकट है। जिगर मेमोरियल इण्टर कालेज के बगल में महज 300 मीटर दूर ही है, लेकिन यहां के बच्चे स्कूल नहीं जाते। नूर हुसैन का 14 वर्षीय पुत्र जायदुल मदरसे में कखा तीन का छात्र है। उसकी तमन्ना अच्छे स्कूल में पढ़ने की है लेकिन पिता की माली हालत उसके सपनों को रौंद रही है। बाबुर अली की 12 साल की लड़की रेहाना खातून ने तो स्कूल का मुंह भी नहीं देखा नतीजन अशिक्षा के कारण हिन्दी भी नहीं जानती सिर्फ असमिया जानती है। वह भी पढ़ना चाहती है। हमीदुल, तरब अली जैसे दर्जनों बचचों का भी यही हाल है। भला हो एक हाफिज जी का जो यहां आकर बच्चों को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू पढ़ाते हैं लेकिन इसका कोई भविष्य नहीं है। जहीरुद्दीन की पत्नी बतासी खातून कहती हैं पेट भरना ही मुश्किल है तो बच्चों को पढ़ाएं कहां से। मोहम्मद अली बताते हैं कि सरकारी स्कूल के शिक्षक भी यहां कभी नहीं आए और न ही यहां के बच्चों को अपने स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए प्रेरित किया। अगर अध्यापक गण इस झुग्गी बस्ती में नियमित रूप से आकर बच्चों के अभिभावकों को समझाएं तो सभी बच्चे स्कूल जाने लगेंगे। क्योंकि सरकार की ओर से निःशुल्क पढ़ाई के साथ ही ड्रेस, किताबें और मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था है।
सरकारी लाभ से वंचित
कचरा बटारने के काम में लगी झोपड़ पट्टी की महिलाओं ने बताया कि वहां निवास कर रहे परिवारों में आधार कार्ड है, लेकिन राशन कार्ड नहीं है। इन्हें सरकारी आवास योजना का लाभ मिल जाए तो ये इस बदतर स्थिति से उबर सकते हैं। कई महिलाओं ने बताया कि एक बार नगर पालिका आफिस से कोई अधिकारी आए थे। उन्होंने राशन कार्ड के लिए फार्म भी भरवाया था, लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ।
तेज प्रताप सिंह